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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र चतुर्थ प्रश्नपत्र - परिवर्तन एवं विकास का समाजशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2684
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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र चतुर्थ प्रश्नपत्र - परिवर्तन एवं विकास का समाजशास्त्र

प्रश्न- सामाजिक विकास के मार्ग में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की भूमिका का वर्णन कीजिये।

उत्तर -

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत एक नवीन अर्थव्यवस्था है जिसका जन्म यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् हुआ है। वर्तमान विश्व व्यवस्था इतनी प्रतिस्पर्धी और व्यापक है कि किसी एक अर्थव्यवस्था को विश्व व्यवस्था के सन्दर्भ के सन्दर्भ में नहीं अपनाया जा सकता।

अनेक पश्चिमी समाजों में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को अपनाकर पर्याप्त आर्थिक विकास किया है और आज विकसित राष्टों के रूप में विश्व के सामने हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका एवं जापान इस अर्थव्यवस्था के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसमें उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत लोगों का अधिकार होता है, स्वतन्त्र प्रतियोगिता के रूप में सम्पूर्ण 'आर्थिक कार्य' संचालित किये जाते हैं। पूँजीवादी अर्थ - व्यवस्था में समस्त आर्थिक क्रियाओं का एक ही उद्देश्य होता है अधिकतम लाभ कमाना। इस अर्थव्यवस्था में समाज दो रूपों में विभाजित हो जाता है

(i) उत्पादन साधनों के स्वामी अर्थात पूँजीवादी वर्ग,
(ii) श्रमिक वर्ग। बाजारवाद, मशीनवाद आदि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ होती हैं।

पूँजीवाद अर्थव्यवस्था की सर्वश्रेष्ठ परिभाषा जॉन स्ट्रैची की है।

"पूँजीवाद अर्थव्यवस्था ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसमें कृषि भूमि, उद्योगों तथा खानों पर कुछ व्यक्तियों का स्वामित्व होता है। इन उत्पादन साधनों में कार्य करने वालों का साधनों पर स्वामित्व नहीं होता उत्पादन का लाभ उत्पादन साधनों के स्वामियों को मिलता है। पूँजीवाद अर्थव्यवस्था लाभ के उद्देश्य से चलती है, प्रेम के कारण नहीं"

यह परिभाषा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की प्रकृति को पूर्ण रूप से स्पष्ट करती है। उत्पादन साधनों पर कुछ लोगों का व्यक्तिगत स्वामित्व होना। श्रमिकों को मजदूरी पर रखना। इन उद्योगों में कार्य करना एवं लाभ पर पूर्ण स्वामित्व उत्पादन साधनों के स्वामियों का होना पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की मुख्य बाते हैं।

सामाजिक विकास में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की भूमिका

(1) मुक्त बाजार व्यवस्था - यह एक स्वतन्त्र बाजार व्यवस्था होती है अर्थात् पूँजीपति अपनी क्षमता के अनुसार कितना भी उत्पादन कर सकता है तथा किसी भी कीमत पर कितनी भी मात्रा में उसका खुले बाजार में विक्रय कर सकता है। यद्यपि कभी-कभी सरकार उपभोक्ताओं के हित को ध्यान में रखकर मूल्य नियन्त्रित कर सकती है।

(2) वृहद्स्तरीय उत्पादन व्यवस्था - पूँजीवादी अर्थव्यवस्था मशीनवाद पर आधारित होती है। इसमें बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना की जाती है तथा वृहद् स्तर पर उत्पादन किया जाता है। विकसित तकनीक से आधुनिक युग में उत्पादन की क्षमता में काफी वृद्धि हुई है।

(3) आर्थिक स्वतन्त्रता - पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में व्यक्तियों को आर्थिक स्वतन्त्रता होती है अर्थात् कोई भी व्यक्ति किसी भी सीमा तक चल अथवा अचल सम्पत्ति का संग्रहण कर सकता है। इस पर किसी भी प्रकार का राजकीय प्रतिबन्ध नहीं होता है।

(4) मुक्त प्रतियोगिता पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में खुली प्रतिस्पर्धा होती है। क्रेता कम से कम कीमत पर क्रय करना चाहता है तो विक्रेता अधिक से अधिक मूल्य पर उत्पादित वस्तएं बेचने का प्रयास करता है। इस स्थिति में उत्पादकों की आपसी प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है तथा लाभ क्रेताओं को होता है।

(5) वस्तु मूल्य के नियन्त्रण में सहायक - पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उद्योगों का निरन्तर विकास होता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि कच्चे माल के मूल्य एवं विभिन्न करों की दरों में वृद्धि हो जाने से मूल्य वृद्धि की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। किन्तु पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उद्योगों में अधिक उत्पादन करके एवं अधिक आपूर्ति के द्वारा मूल्य नियन्त्रण में सहायता मिलती है।

(6) व्यावसायिक प्रगति - पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से व्यवसाय व व्यापार की प्रगति हुई है। नवीन यन्त्रों और मशीनों का परिणाम यह हुआ कि वाणिज्य व व्यवसाय के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुईं। इसके साथ ही नवीन मार्गों और यातायात के साधनों का विकास किया गया व नए बाजारों की खोज हुई।

(7) मितव्ययी अर्थव्यवस्था - पूँजीवादी अर्थव्यवस्था उत्पादन की मितव्ययी व्यवस्था है। इस अर्थव्यवस्था में उत्पादन बड़े पैमाने पर एवं मशीनों के द्वारा होता है। इससे उत्पादित वस्तु में लागत खर्च कम होता है। यदि मूल्यों पर नियन्त्रण रखा जाये तो इससे उपभोक्ताओं को कम मूल्य पर अच्छी वस्तुएँ प्राप्त हो सकती हैं। साथ ही इस अर्थव्यवस्था में उद्योगपति स्वयं स्वामी होने के कारण अन्य प्रकार के सभी खर्चों पर नियंत्रण रखता है।

(8) वाणिज्य का विस्तार - इस अर्थव्यवस्था में अधिक एवं श्रेष्ठ उत्पादन करना सम्भव होता है। इससे उत्पादित वस्तुओं का निर्यात करने में सहायता मिलती है। इससे न केवल एक राष्ट्र की पूरे विश्व में पहचान बनती है बल्कि विदेशी पूँजी की भी प्रगति होती है। इस अर्थव्यवस्था ने वाणिज्य को विस्तार दिया है।

(9) स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का विकास - पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उद्योगों का निरन्तर विकास होता है। इससे वस्तुओं का अधिकाधिक उत्पादन होने लगता है तथा पूँजीपतियों में अपने सामान को बेचने की प्रतिस्पर्धा प्रारम्भ हो जाती है। बाजार में वही वस्तु बिक पाती है जिसका मूल्य कम एवं गुणवत्ता श्रेष्ठ हो। उद्योगपति कम मूल्य पर श्रेष्ठ वस्तुएँ उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराने का प्रयास करते हैं। इससे उपभोक्ताओं को लाभ होता है।

(10) व्यक्तिगत एवं आर्थिक स्वतन्त्रता - सरकारी हस्तक्षेप न होने के कारण पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उद्योगपति अपने उद्योगों को स्वेच्छा से संचालित करने के लिये स्वतन्त्र होते हैं। वे जब चाहे जितना उत्पादन कर सकते हैं जहाँ चाहें बेच सकते हैं। इससे कार्य के प्रति उनमें उत्साह बना रहता है।

(11) व्यक्तिगत लाभ की भावना - पूँजीवाद अर्थव्यवस्था में उद्योगपतियों का एकमात्र उद्देश्य औद्योगिक उत्पादन के रूप में अधिकाधिक आर्थिक लाभ कमाना होता है। इसके लिये उद्योगपति श्रमिकों के शोषण एवं श्रम कल्याण अधिनियमों का उल्लघंन करने से भी नहीं चूकते। वहीं दूसरी ओर श्रमिक वर्ग भी सदा अपनी स्थिति से असन्तुष्ट रहता है तथा अधिकाधिक मजदूरी एवं कल्याण सुविधायें प्राप्त करने का प्रयास करता है। इसके लिये वह हड़ताल करने से भी नहीं चूकता। इस प्रकार इस अर्थव्यवस्था में दोनों पक्ष अधिकाधिक व्यक्तिगत लाभ साधने का प्रयास करते हैं।

(12) वस्तुमूल्य के नियन्त्रण में सहायक - कभी-कभी ऐसा होता है कि कच्चे माल के मूल्य एवं विभिन्न करों की दर में वृद्धि हो जाने से मूल्य वृद्धि की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। किन्तु पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में, उद्योगों में अधिक उत्पादन करके एवं अधिक आपूर्ति के द्वारा मूल्य नियन्त्रण में सहायता मिलती है।

(13) भौतिकवाद का विकास - पूँजीवाद अर्थव्यवस्था में धन सम्पत्ति ही सब कुछ है और वह है अधिकाधिक धन सम्पदा का संग्रहण। धन सम्पत्ति को ही पूँजीवादी समाजों में प्रतिष्ठा का मापक सामाजिक मूल्यों एवं आदर्शों का कोई स्थान नहीं रहता।

कार्ल मार्क्स का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त

कार्ल मार्क्स का सम्पूर्ण सिद्धान्त तथा उसकी विचारधारा उसके ऐतिहासिक भौतिकवाद और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पर आधारित है। मार्क्स वह प्रथम दार्शनिक हैं जो भाव जगत से हटकर चीजों को देखता है। सामाजिक घटनाओं की व्याख्या वह भावनाओं के आधार पर नहीं करता है। उसने सामाजिक घटनाओं का अध्ययन वैज्ञानिक दृष्टि से किया जाता है। इसलिए उसके सिद्धान्त रेल के कगारों पर महल का निर्माण नहीं करते। उसके सिद्धान्त वास्तविक जगत के तथ्यों पर आधारित हैं, इसलिये वे वास्तविक और व्यावहारिक जीवन से मेल खाते हैं।

मार्क्स अपने पूर्ववर्ती विचारकों के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त की कुट आलोचना करते हैं। इनके पूर्ववर्ती विचारक सामाजिक परिवर्तन को अवैज्ञानिक रूप में अध्ययन करते थे। जैसे भौगोलिक परिस्थितियों अथवा जनसंख्या में परिवर्तन होने से सामाजिक परिवर्तन होते हैं।

मार्क्स का यह मत है कि इन कारकों का प्रभाव सामाजिक परिवर्तन थोड़ा बहुत अवश्य पड़ता है, किन्तु यह सामाजिक परिवर्तन के निर्णायक तत्व नहीं हो सकते हैं। मार्क्स अपने सिद्धान्त के सम्बन्ध में कहते हैं कि उत्पादन के साधनों और उसकी शक्ति में परिवर्तन के साथ ही सामाजिक परिवर्तन भी होते हैं। उत्पादन के साधनों में जब परिवर्तन भी होते हैं उत्पादन के साधनों में भी होते हैं। उत्पादन के साधनों में जब परिवर्तन होता है, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक सम्बन्ध टूटते बंधते हैं। उसका यह मत है कि उत्पादकों के साधनों के आधार पर ही कुछ निश्चित प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का प्रतिमान निर्मित होता है, जैसा स्वामी और दास, जमींदार और कृषक, पूंजीपति और श्रमिक। इस प्रकार के संबंध व्यक्ति, समाज में इच्छापूर्वक नहीं बनाता है। बल्कि वे उत्पादन के साधनों के अनुसार स्वयं बनते हैं। इतना ही नहीं उत्पादन के साधनों के आधार पर समाज में विभिन्न प्रकार के संगठन व संस्थाओं की स्थापनायें भी होती है, जैसे आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक संस्थायें। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि सम्पूर्ण आर्थिक एवं सामाजिक ढांचा उत्पादन के साधनों के अनुसार ही निर्मित होते हैं तथा विघटित भी होते हैं। इस तरह उत्पादन के साधनों में परिवर्तित होने से सामाजिक सम्बन्धों में भी परिवर्तन होते हैं। संक्षेप में मार्क्स के सम्पूर्ण सिद्धान्त को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है -

(1) मार्क्स का विचार है कि सामाजिक परिवर्तन उत्पादन के साधनों में परिवर्तन होने से होते हैं। उत्पादन प्रणाली के साधनों में परिवर्तन होने से होते हैं। उत्पादन प्रणाली और साधनों की यह विशेषता है कि ये अधिक समय तक समान रूप से स्थिर नहीं रहते। इस तरह उत्पादन के साधनों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। इस परिवर्तन के फलस्वरूप आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक संगठन व संस्थाओं में परिवर्तन होते हैं और इससे सामाजिक व्यवस्था में भी परिवर्तन होते हैं।

(2) उत्पादन प्रणाली की यह विशेषता है कि इसमें परिवर्तन तभी होते है, जब उत्पादन शक्तियाँ व साधनों में परिवर्तन होते हैं। इसके साथ ही साथ उत्पादन के साधनों में प्रयोग किये जाने वाले औजारों और यन्त्रों के प्रयोग में भी परिवर्तन आता है। इस तरह परिवर्तन के साथ एक ऐसी कड़ी जुड़ी हुई है जो एक के परिवर्तित होने से अन्य चीजे स्वयं बदल जाती है।

मार्क्स के शब्दों में- "सामाजिक सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। नवीन उत्पादक शक्तियों के प्राप्त होने पर व्यक्ति अपनी उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन करते है और अपनी उत्पादन प्रणाली और जीविकोपार्जन की प्रणाली परिवर्तन करने से वे अपने सब प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों को बदल देते हैं। जब हाथ की चक्की वह समाज बनाती है, जिसमें प्रभुत्व औद्योगिक पूँजीगत का होता है।

(3) नवीन उत्पादन प्रणाली का जन्म कहीं बाहर से नहीं आता है। बल्कि उसी उत्पादन प्रणाली में नवीन उत्पादन प्रणाली के बीच उपस्थित रहते हैं। इस तरह परिवर्तन एक स्वाभाविक क्रिया है, जो स्वतः चलती रहती है।

मार्क्स का सम्पूर्ण ऐतिहासिक भौतिकवाद का विश्लेषण इस तथ्य का उदाहरण है कि किस प्रकार सामन्तवादी व्यवस्था में पूँजीवादी व्यवस्था के बीज उभरते हैं और उसी व्यवस्था में समाजवाद और साम्यवाद के बीज छिपे हुये हैं जो अन्ततः समाज में उत्पन्न होगे।

(4) मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त का जन्म क्रान्ति द्वारा होता है। वह कहता है कि नवीन उत्पादन प्रणालियाँ, नवीन वर्ग को जन्म देती है। यह वर्ग उन शक्तियों को अपना संगठन बनाते हैं, जिनका उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार होता है। यद्यपि पूँजीपति वर्ग सदैव यह प्रयत्न करता है कि श्रमिक वर्ग किसी भी प्रकार से प्रगति न कर सके किन्तु श्रमिक वर्ग की शक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और समय के साथ श्रमिकों में वर्ग चेतना की भावना प्रबल होती जाती है और एक दिन ऐसा आता है कि श्रमिक वर्ग सम्पूर्ण पूँजीपति व्यवस्था को अपने संगठन क्रांन्ति के द्वारा उखाड़ फेंकता है। इस समाज में श्रमिकों का राज्य होगा। इसमें न कोई शोषक होगा और न ही कोई शोषित। सभी व्यक्ति समान होंगे। इस समाज को मार्क्स वर्गहीन समाज की संज्ञा देता है। इस समाज की स्थापना के पश्चात समाज में क्रान्ति होने की संभावनायें समाप्त हो जाती है क्योंकि वर्गहीन समाज में वैयक्तिक सम्पत्ति हित व स्वार्थ नाम की कोई चीज नहीं होती है। इसलिये इस समाज में कम से कम शारीरिक क्षमताओं व धर्म का शोषण नहीं किया जाता। मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को निम्नलिखित रूपरेखा के द्वारा भी समझा जा सकता है -

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया

उत्पादन के साधनों में परिवर्तन

उत्पादन की शक्तियों में परिवर्तन

आर्थिक-सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन
(स्वामी और दास, जमींदार और कृषक, पूँजीपति और श्रमिक)

सामाजिक परिवर्तन

नवीन उत्पादन प्रणाली के तत्व पूर्ववर्ती उत्पादन प्रणाली में ही होते हैं.

आर्थिक सामाजिक क्रान्ति

वर्ग संघर्ष (पूँजीपतियों और श्रमिक वर्ग के मध्य)

श्रमिकों का पूँजीपतियों पर विजय

वर्गहीन समाज की स्थापना

 

मार्क्स के सिद्धान्त की आलोचना -

(1) मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का सबसे बड़ा दोष यह है कि वह आर्थिक कारक के माध्यम से सभी प्रकार के परिवर्तनों को दर्शाना चाहता है।
(2) सामाजिक परिवर्तन जो निरन्तर चलने वाली एक प्रक्रिया है; वह अन्ततः वर्गहीन समाज में आकार "कैसे समाप्त हो जाती है। यहाँ पर एक प्रश्न उठता है कि क्या उत्पादन प्रणाली इस अवस्था तक आते-आते इतनी परिपक्व हो जाती है कि उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना नहीं रहती है।
(3) मार्क्स पर यह भी आरोप लगाया जाता है कि उसने अपने सिद्धान्त के उद्देश्य को सर्वप्रथम अपने सम्मुख रख लिया है फिर तर्कों के आधार पर अपने सिद्धान्त की पुष्टि की है, जिसमें उसका लक्ष्य स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित होता है।
(4) मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त में मूलतः एक समाजवादी क्रान्ति की सशक्त पृष्ठभूमि है। इसके माध्यम से समाज में जितने प्रकार के परिवर्तन होते हैं उन्हें नहीं समझा जा सकता है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पूँजीवाद एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व होता है तथा प्रत्येक व्यवसाय में अधिक से अधिक लाभ अर्जित करने के लिये व्यक्ति को राज्य की तरफ से पूर्णतया छूट होती है। लाभ व्यक्ति को प्राप्त होता है। अतः व्यक्ति लाभ की दृष्टि से अपने व्यवसाय का चयन करता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन का अर्थ बताइये सामाजिक परिवर्तन की विशेषतायें बताते हुए सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करने वाले कारकों का विवरण दीजिए?
  2. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन की विशेषतायें बताइए।
  3. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन की प्रमुख प्रक्रियायें बताइये तथा सामाजिक परिवर्तन के कारणों (कारकों) का वर्णन कीजिए।
  4. प्रश्न- नियोजित सामाजिक परिवर्तन की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  5. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में नियोजन के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
  6. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन से आप क्या समझते है? सामाजिक परिर्वतन के स्वरूपों की व्याख्या स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- सामाजिक संरचना के विकास में सहायक तथा अवरोधक तत्त्वों को वर्णन कीजिए।
  8. प्रश्न- सामाजिक संरचना के विकास में असहायक तत्त्वों का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- केन्द्र एवं परिरेखा के मध्य सम्बन्ध की विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन का अर्थ बताइये? सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारकों का उल्लेख कीजिए।
  11. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के भौगोलिक कारक की विवेचना कीजिए।
  12. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के जैवकीय कारक की विवेचना कीजिए।
  13. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारक की विवेचना कीजिए।
  14. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के राजनैतिक तथा सेना सम्बन्धी कारक की विवेचना कीजिए।.
  15. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में महापुरुषों की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
  16. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के प्रौद्योगिकीय कारक की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के विचाराधारा सम्बन्धी कारक की विवेचना कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक की विवेचना कीजिए।
  20. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के मनोवैज्ञानिक कारक की विवेचना कीजिए।
  21. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा बताते हुए इसकी विशेषताएं लिखिए।
  22. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन की विशेषतायें बताइये।
  23. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में सूचना प्रौद्योगिकी की क्या भूमिका है?
  24. प्रश्न- निम्नलिखित पुस्तकों के लेखकों के नाम लिखिए - (अ) आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन (ब) समाज
  25. प्रश्न- सूचना प्रौद्योगिकी एवं विकास के मध्य सम्बन्ध की विवेचना कीजिए।
  26. प्रश्न- सूचना तंत्र क्रान्ति के सामाजिक परिणामों की व्याख्या कीजिए।
  27. प्रश्न- रूपांतरण किसे कहते हैं?
  28. प्रश्न- सामाजिक नियोजन की अवधारणा को परिभाषित कीजिए।
  29. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न परिप्रेक्ष्यों का वर्णन कीजिए।
  30. प्रश्न- प्रवर्जन व सामाजिक परिवर्तन पर एक टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन कीजिए।
  32. प्रश्न- सामाजिक उद्विकास से आप क्या समझते हैं? सामाजिक उद्विकास के विभिन्न स्तरों का वर्णन कीजिए।
  33. प्रश्न- सामाजिक उद्विकास के विभिन्न स्तरों का वर्णन कीजिए।
  34. प्रश्न- भारत में सामाजिक उद्विकास के कारकों का वर्णन कीजिए।
  35. प्रश्न- भारत में सामाजिक विकास से सम्बन्धित नीतियों का संचालन कैसे होता है?
  36. प्रश्न- सामाजिक प्रगति को परिभाषित कीजिए। सामाजिक प्रगति और सामाजिक परिवर्तन में अन्तर कीजिए।
  37. प्रश्न- सामाजिक प्रगति और सामाजिक परिवर्तन में अन्तर कीजिए।
  38. प्रश्न- सामाजिक प्रगति में सहायक दशाओं की विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के लिए जैव-तकनीकी कारण किस प्रकार उत्तरदायी है?
  40. प्रश्न- सामाजिक प्रगति को परिभाषित कीजिए। सामाजिक प्रगति और सामाजिक परिवर्तन में अन्तर कीजिए?
  41. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक प्रगति में अन्तर बताइये।
  42. प्रश्न- सामाजिक उद्विकास एवं प्रगति में अन्तर बताइये।
  43. प्रश्न- सामाजिक उद्विकास की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- समाज में प्रगति के मापदण्डों को स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारकों की विवेचना कीजिए।
  46. प्रश्न- उद्विकास व प्रगति में अन्तर स्थापित कीजिए।
  47. प्रश्न- "भारत में जनसंख्या वृद्धि ने सामाजिक आर्थिक विकास में बाधाएँ उपस्थित की हैं।" स्पष्ट कीजिए।
  48. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक बताइये तथा आर्थिक कारकों के आधार पर मार्क्स के विचार प्रकट कीजिए?
  49. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन मे आर्थिक कारकों से सम्बन्धित अन्य कारणों को स्पष्ट कीजिए।
  50. प्रश्न- आर्थिक कारकों पर मार्क्स के विचार प्रस्तुत कीजिए?
  51. प्रश्न- मिश्रित अर्थव्यवस्था से आप क्या समझते हैं? भारत के सन्दर्भ में समझाइए।
  52. प्रश्न- भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था के बारे समझाइये।
  53. प्रश्न- मिश्रित अर्थव्यवस्था का नये स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
  54. प्रश्न- मिश्रित अर्थव्यवस्था की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
  55. प्रश्न- विकास के समाजशास्त्र को परिभाषित कीजिए तथा उसका विषय क्षेत्र एवं महत्व बताइये?
  56. प्रश्न- विकास के समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र बताइये?
  57. प्रश्न- विकास के समाजशास्त्र के महत्व की विवेचना विकासशील समाजों के सन्दर्भ में कीजिए?
  58. प्रश्न- मिश्रित अर्थव्यवस्था की उपादेयता व सीमाओं की विवेचना कीजिए।
  59. प्रश्न- मिश्रित अर्थव्यवस्था की सीमाएँ स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- औद्योगीकरण के सामाजिक प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
  61. प्रश्न- मिश्रित अर्थव्यवस्था की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  62. प्रश्न- समाज पर प्रौद्योगिकी का प्रभाव बताइए।
  63. प्रश्न- विकास के उपागम बताइए?
  64. प्रश्न- सामाजिक विकास के मार्ग में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय समाज मे विकास की सतत् प्रक्रिया पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  66. प्रश्न- विकास के प्रमुख संकेतकों की व्याख्या कीजिए।
  67. प्रश्न- मानव विकास को परिभाषित करते हुए इसकी उपयोगिता स्पष्ट करो।
  68. प्रश्न- मानव विकास के अध्ययन के महत्व की विस्तारपूर्वक चर्चा कीजिए।
  69. प्रश्न- मानव विकास को समझने में शिक्षा की भूमिका बताओ।
  70. प्रश्न- वृद्धि एवं विकास में क्या अन्तर है?
  71. प्रश्न- सतत् विकास की संकल्पना को बताते हुये इसकी विशेषतायें लिखिये।
  72. प्रश्न- सतत् पोषणीय विकास का महत्व अथवा आवश्यकता स्पष्ट कीजिये।
  73. प्रश्न- सतत् पोषणीय विकास के उद्देश्यों का उल्लेख कीजिये।
  74. प्रश्न- विकास से सम्बन्धित पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने की विधियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिये।
  75. प्रश्न- पर्यावरणीय सतत् पोषणता के कौन-कौन से पहलू हैं? समझाइये।
  76. प्रश्न- सतत् पोषणीय विकास की आवश्यकता / महत्व को स्पष्ट कीजिये। भारत जैसे विकासशील देश में इसके लिये कौन-कौन से उपाय किये जाने चाहिये?
  77. प्रश्न- "भारत में सतत् पोषणीय पर्यावरण की परम्परा" शीर्षक पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  78. प्रश्न- जीवन की गुणवत्ता क्या है? भारत में जीवन की गुणवत्ता को स्पष्ट कीजिये।
  79. प्रश्न- सतत् विकास क्या है?
  80. प्रश्न- जीवन की गुणवत्ता के आवश्यक तत्व कौन-कौन से हैं?
  81. प्रश्न- स्थायी विकास या सतत विकास के प्रमुख सिद्धान्त कौन-कौन से हैं?
  82. प्रश्न- सतत् विकास सूचकांक, 2017 क्या है?
  83. प्रश्न- सतत् पोषणीय विकास की आवश्यक शर्ते कौन-कौन सी हैं?
  84. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्तों की समीक्षा कीजिए।
  85. प्रश्न- समरेखीय सिद्धान्त पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  86. प्रश्न- भौगोलिक निर्णायकवादी सिद्धान्त पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  87. प्रश्न- उद्विकासीय समरैखिक सिद्धान्त पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  88. प्रश्न- सांस्कृतिक प्रसारवाद सिद्धान्त पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  89. प्रश्न- चक्रीय सिद्धान्त पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  90. प्रश्न- चक्रीय तथा रेखीय सिद्धान्तों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  91. प्रश्न- आर्थिक निर्णायकवादी सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखिए।
  92. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन का सोरोकिन का सिद्धान्त एवं उसके प्रमुख आधारों का वर्णन कीजिए।
  93. प्रश्न- वेबर एवं टामस का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त बताइए।
  94. प्रश्न- मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन सम्बन्धी निर्णायकवादी सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए तथा वेब्लेन के सिद्धान्त से अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  95. प्रश्न- मार्क्स व वेब्लेन के सामाजिक परिवर्तन सम्बन्धी विचारों की तुलना कीजिए।
  96. प्रश्न- सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त की समीक्षा कीजिये।
  97. प्रश्न- सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त की आलोचना कीजिए।
  98. प्रश्न- अभिजात वर्ग के परिभ्रमण की अवधारणा क्या है?
  99. प्रश्न- विलफ्रेडे परेटो द्वारा सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त की विवेचना कीजिए!
  100. प्रश्न- जनसांख्यिकी विज्ञान की विस्तृत विवेचना कीजिए।
  101. प्रश्न- सॉरोकिन के सांस्कृतिक सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखिए।
  102. प्रश्न- ऑगबर्न के सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  103. प्रश्न- चेतनात्मक (इन्द्रियपरक) एवं भावात्मक (विचारात्मक) संस्कृतियों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  104. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के प्राकृतिक कारकों का वर्णन कीजिए। सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारकों व प्रणिशास्त्रीय कारकों का वर्णन कीजिए।।
  105. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारकों का वर्णन कीजिए।
  106. प्रश्न- प्राणिशास्त्रीय कारक और सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या कीजिए?
  107. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में जनसंख्यात्मक कारक के महत्व की समीक्षा कीजिए।
  108. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में प्रौद्योगिकीय कारकों की भूमिका की विवेचना कीजिए।
  109. प्रश्न- समाज पर प्रौद्योगिकी का प्रभाव बताइए।
  110. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में प्रौद्योगिक कारकों की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
  111. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में सूचना प्रौद्योगिकी की क्या भूमिका है? व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- सूचना प्रौद्योगिकी एवं विकास के मध्य सम्बन्ध की विवेचना कीजिए।
  113. प्रश्न- मीडिया से आप क्या समझते हैं? सूचना प्रौद्योगिकी की सामाजिक परिवर्तन में क्या भूमिका है? स्पष्ट कीजिए।
  114. प्रश्न- जनसंचार के प्रमुख माध्यम बताइये।
  115. प्रश्न- सूचना प्रौद्योगिकी की सामाजिक परिवर्तन में भूमिका बताइये।
  116. प्रश्न- जनांकिकीय कारक से आप क्या समझते हैं?
  117. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारक पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  118. प्रश्न- प्रौद्योगिकी क्या है?
  119. प्रश्न- प्रौद्योगिकी के विकास पर टिप्पणी कीजिए।
  120. प्रश्न- प्रौद्योगिकी के कारकों को बताइये एवं सामाजिक जीवन में उनके प्रभाव पर टिप्पणी कीजिए।
  121. प्रश्न- सन्देशवहन के साधनों के विकास का सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा?
  122. प्रश्न- मार्क्स तथा वेब्लन के सिद्धान्तों की तुलना कीजिए?
  123. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के 'प्रौद्योगिकीय कारक पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  124. प्रश्न- मीडिया से आप क्या समझते है?
  125. प्रश्न- जनसंचार के प्रमुख माध्यम बताइये।
  126. प्रश्न- सूचना प्रौद्योगिकी क्या है?
  127. प्रश्न- विकास के समाजशास्त्र को परिभाषित कीजिए तथा उसका विषय क्षेत्र एवं महत्व बताइये?
  128. प्रश्न- विकास के समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र बताइये?
  129. प्रश्न- विकास के समाजशास्त्र के महत्व की विवेचना विकासशील समाजों के सन्दर्भ में कीजिए?
  130. प्रश्न- विश्व प्रणाली सिद्धान्त क्या है?
  131. प्रश्न- केन्द्र परिधि के सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
  132. प्रश्न- विकास के उपागम बताइए?
  133. प्रश्न- सामाजिक विकास के मार्ग में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख कीजिए।
  134. प्रश्न- भारतीय समाज में विकास की सतत् प्रक्रिया पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  135. प्रश्न- विकास के प्रमुख संकेतकों की व्याख्या कीजिए।
  136. प्रश्न- भारत में आर्थिक व सामाजिक विकास में योजना की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए?
  137. प्रश्न- सामाजिक तथा आर्थिक नियोजन में क्या अन्तर है?
  138. प्रश्न- भारत में योजना आयोग की स्थापना एवं कार्यों की व्याख्या कीजिए?
  139. प्रश्न- भारत में पंचवर्षीय योजनाओं की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिये तथा भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का मूल्यांकन कीजिए?
  140. प्रश्न- पंचवर्षीय योजनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  141. प्रश्न- भारत में पर्यावरणीय समस्याएँ एवं नियोजन की विवेचना कीजिए।
  142. प्रश्न- पर्यावरणीय प्रदूषण दूर करने के लिए नियोजित नीति क्या है?
  143. प्रश्न- विकास में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका का वर्णन कीजिए।
  144. प्रश्न- गैर सरकारी संगठनों से आप क्या समझते है? विकास में इनकी उभरती भूमिका की चर्चा कीजिये।
  145. प्रश्न- भारत में योजना प्रक्रिया की संक्षिप्त विवेचना कीजिये।
  146. प्रश्न- सामाजिक विकास के मार्ग में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की भूमिका का वर्णन कीजिये।
  147. प्रश्न- पंचवर्षीय योजनाओं से आप क्या समझते हैं। पंचवर्षीय योजनाओं का समाजशास्त्रीय मूल्यांकन कीजिए।
  148. प्रश्न- पूँजीवाद पर मार्क्स के विचारों का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
  149. प्रश्न- लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए लोकतंत्र के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
  150. प्रश्न- लोकतंत्र के विभिन्न सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
  151. प्रश्न- भारत में लोकतंत्र को बताते हुये इसकी प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  152. प्रश्न- अधिनायकवाद को परिभाषित करते हुए इसकी विशेषताओं का विस्तृत उल्लेख कीजिए।
  153. प्रश्न- क्षेत्रीय नियोजन को परिभाषित करते हुए, भारत में क्षेत्रीय नियोजन के अनुभव की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  154. प्रश्न- नीति एवं परियोजना नियोजन पर एक टिप्पणी लिखिये।.
  155. प्रश्न- विकास के क्षेत्र में सरकारी संगठनों की अन्य भूमिका है? स्पष्ट कीजिए।
  156. प्रश्न- गैर-सरकारी संगठन (N.G.O.) क्या है?
  157. प्रश्न- लोकतंत्र के गुण एवं दोषों की संक्षिप्त में विवेचना कीजिए।
  158. प्रश्न- सोवियत संघ के इतिहासकारों द्वारा अधिनायकवाद पर विचार पर एक संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए।
  159. प्रश्न- शीतयुद्ध से आप क्या समझते हैं?

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